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कभी – कभी मुझे अपने नानी घर की याद आती है
उस गाँव का वो भोज बहुत याद आता है
जहाँ लोग बड़े चाव से पंगत में बैठकर खाते थे
वो पुरी सब्जी आलू की कुछ मिठाईयाँ
दही रायता और सबसे जरूरी रामरस
मैं भी जब पंगत में बैठा था खाने के लिए
बचपन का वो दौर था
रात्रि भोज था जहाँ मै अपने नाना और
मामा के साथ गया था
वहाँ मै देख रहा था
सबसे पहले पत्तल पर
पानी झिड़क कर पंगत में बैठे सभी के आगे रखना
फिर पुरी लेकर आना टोकरी में और
बाल्टी में सब्जी भरकर लाना सबको देना
मिठाई गाँव के लोगों द्धारा अपने लोटा में
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छुपाकर रख लेना ये भी देखना दिलचस्प था
फिर रायता दही चीनी और अंत में रामरस
की आवाज कानो में आना
ये नाम मैंने पहली बार सुना था गाँव में
जब मेरे पास आकर पूछा रामरस मैने
मुस्कुरा का हां कहा मुझे बड़ा अच्छा लगा
नमक को गाँव में रामरस कहते हैं ये जानकर
फिर मैने पुड़ी कम खाई मगर सब्जी जी भर खाया
सब्जी इतनी स्वादिष्ट की उसका स्वाद
आज भी नहीं भूला हूँ मैं वो सुनहरी यादे
मुझे इन शहरों में बहुत मन करता है
काश किसी भी गाँव के
किसी ऐसे ही भोज में जा सकूँ
जहाँ वही रामरस हो और वही सब्जी का स्वाद
मुझे दुबारा से मिल सके
मेरे नानी घर का वो भोज
ये मेरे यादो का एक कीमती खजाना है
जिसे जब भी खोलता हूँ
मै मालामाल हो जाता हूँ
उन कीमती खजानो को देखकर
जीवन कभी जब मायूस होती है तो
ऐसे ही पुराने खजाने को खोलने से
जीवन फिर से मुस्कुराने लगती है
यही तो बचपन होता है जहाँ का
एक – एक पल यादो की सुनहरी छड़ी होती है
जिसे घुमाकर एक बार फिर से हम
अपने बचपन में पहुंच जाते हैं